गंदा, बदबूदार, शराबी डायरेक्टर कहा जाने वाला पदमश्री विजेता रित्विक घटक दुनिया के महान
फिल्मकारों में से है जिन्होने पूरे जीवन में से आधा जीवन फिल्मो में लगा दिया और
9 फिल्मे बनाई | घटक जी को कभी भी दुनिया इतनी मीठी नही लगी जितनी उनके मन की चाह
रही | सामाजिक गैर बराबरी, अन्याय , घूसखोरी, आडम्बरो से थका हुआ ये फ़िल्मकार
रुग्ण सा जीवन जिया और एक सच्चा फ़िल्मकार कहलाया| सत्यजीत रे इनकी खूब तारीफ करते
थे. कहा जाता है ये फिल्मो का दीवाना हर वक्त सोचता रहता था, नहाना, खाना, और
नैतिक कहे जाने वाले सभी किर्याकलापो को जीवन से अलग कर दिया था इन्होने| बीडी और
शराब में मशगूल रहने के कारण घर का सारा सामान तक बिक गया था ,पत्नी और तीन बच्चो
का भरण पोषण दांव पर भी रहा. पत्नी ने हमेशा इनके दीवानेपन का साथ दिया | आज भी
दुनिया भर के तमाम फिल्म स्कूलों में घटक जी को पढ़ा जाता है| ४ नवम्बर 1925 को जन्मा ये फ़िल्मकार 1976 तक जिया !
उनसे जुडी 16 बाते जो फिल्म्स से जुडे लोगो को जाननी चाहिए
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1 “ फिल्म
देखने जाना भी एक तरह का संस्कार है.जब बत्तियां बुझ जाती है, परदे
जिंदा हो जाते हैं. तो सब दर्शक एक हो जाते हैं| ये एक समुदाय वाली भावना
हो जाती है. हम इसकी तुलना चर्च, मस्जिद या मंदिर जाने से कर सकते हैं|
2 . “मैं फिल्मों
में आया तो पैसे कमाने के लिए नहीं. बल्कि कष्टों
में जी रहे मेरे लोगों को लेकर मेरी पीड़ा और व्यथा को जाहिर करने की इच्छा के कारण. इस वजह से मैं सिनेमा में आया. मैं नारे लगाने या जैसे कि वे कहते हैं ‘एंटरटेनमेंट’ में यकीन नहीं रखता हूं. बल्कि इस
ब्रम्हांड, इस दुनिया,
अंतरराष्ट्रीय स्थितियों, मेरे देश और अंत में मेरे अपने लोगों
के बारे में गहराई से सोचने में यकीन रखता हूं. मैं फिल्में
उनके लिए बनाता हूं. हो सकता है मैं फेल हो जाऊं लेकिन इसका फैसला तो लोगों को
करना है. “
3“ टैगोर ने एक बार कहा था, “आर्ट को ब्यूटीफुल होना चाहिए, लेकिन उससे भी पहले उसे ट्रूथफुल यानी
सच्चा होना चाहिए.” ये सच क्या है? कोई शाश्वत सच नहीं है. हर आर्टिस्ट
को एक दर्दभरी निजी प्रक्रिया से गुजरने के बाद अपना ख़ुद का सच समझना होता है. और
यही है जो उसे अभिव्यक्त करना है”
4.
‘’आर्ट में सबकुछ जायज है. महत्वपूर्ण
प्रश्न यह है कि जो लोग ज़ोरदार ढंग से nudity और kissing का समर्थन करते हैं क्या वो कला के
बारे में सोचते हुए ऐसा करते हैं, या फिर वे जल्दी रोकड़ा कमाने के लिए
ऐसा करना चाहते हैं? ठीक उसी समय मैं चाहूंगा कि हमारी
भारतीय संस्कृति के कट्टर रुढ़िवादी रखवाले, हमारी प्राचीन गुफाओं और मंदिरों में
जाएं और ख़ुद देखें कैसे हमारे पूर्वजों ने इस विषय का सामना किया था. असल बात तो
यह है कि हमारे मुनाफा-कमाने वाले समाज में दोनों ही पक्षों के लोग अपना-अपना
स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं. इनमें से कोई भी स्वार्थरहित आलोचक या कला का सच्चा
प्रेमी नहीं है. इसीलिए मैं इस चूहा-दौड़ में शामिल ही नहीं होना चाहता. “
5.
” फिल्मों में अभिनय असल में, डायरेक्टर और एक्टर्स के बीच
गहरे तालमेल के बाद जन्मता है और खेद है कि वो भारत में गायब है.”
6.
“ अच्छे सिनेमा को जिंदगी के अलग नहीं किया जा सकता. इसे
लोगों की आकांक्षाओं और घबराहटों का प्रतिनिधित्व करना ही होता है. इसे समय से साथ
कदम बढ़ाने होते हैं. इसकी जड़ें लोगों में होनी होती हैं. मेरे हिसाब से बंबई के
सिनेमा की कोई जड़ें नहीं हैं.”
7. “इस पर हमेशा बहस की जाती है कि
एक आर्टिस्ट को क्या सिर्फ प्रॉब्लम सामने रखनी चाहिए या उसके समाधान की ओर भी
इशारा करना चाहिए. मुझे लगता है कि ये चीजों की तरफ बहुत बचकाने ढंग से देखने का
तरीका है. अगर आर्टिस्ट को समाधान सामने रखने की जरूरत महसूस होती है तो उसका
स्वागत है. लेकिन अकसर वह समस्या बताता है और मामले को वहीं छोड़ देता है. ये दोनों
ही ट्रीटमेंट समान रूप से महत्वपूर्ण हैं. हम किसी एक पर आशावादी और दूसरे पर
निराशावादी का लेबल नहीं लगा सकते हैं. केंद्रीय बिंदु यह है कि – जो भी फिल्म की विषय-वस्तु और
रचनाकार के दिमाग में से सहज रूप से विकसित होता है वो पूरी तरह स्वीकार्य है.
लेकिन जो भी उभरे वो स्वत: होना चाहिए. सवाल यह है कि क्या वो आर्टिस्ट जीवन और
इंसानों को लेकर पक्षपाती है या नहीं? अगर वो है तो फिर ये प्रॉब्लम
कभी नहीं होती’’
8.
‘’इस दुनिया में अभी तक वर्ग-हीन कला जैसी
कोई चीज नहीं है.
कारण ये है कि कोई
वर्ग-हीन समाज ही नहीं है. हर work of art
यानी कलाकृति सापेक्षिक है और यह वह इंसान
से जुड़ी है.
अपने नाम के मूल्य मुताबिक हर आर्ट
को इंसान की बेहतरी के लिए काम करना ही
चाहिए.
मैं किसी कठोर थ्योरी में यकीन नहीं करता हूं लेकिन ठीक उसी समय मैं इन तथाकथित ‘महान’ फिल्ममेकर्स को लेकर हैरान
हूं, जो मूल रूप से कुछ नहीं बस
नौसिखिए हैं और मानवीय रिश्तों के आर्ट का शोर मचाते रहते हैं. अपनी सामाजिक
जिम्मेदारी से बचने का ये बहुत चतुर तरीका है. असल में जो भी काम ये करते हैं वो
सिर्फ उनकी अपनी सत्ता को फायदा पहुंचाने के लिए होता है. ये लोग इतने पक्षपाती
हैं जितना कि कोई हो सकता है लेकिन अपक्षपाती होने का मास्क पहनते हैं. मैं ऐसे
आदर्शों से घृणा करता हूं’’
9. “ पूर्वी पाकिस्तान का एक बंगाली
होते हुए मैंने आजादी के नाम पर अपने लोगों पर अकथ्य ज़ुल्म होते देखे हैं. ये
आज़ादी बिलकुल फर्जी और शर्मनाक है. मैंने अपनी फिल्मों में इसे लेकर हिंसक
प्रतिक्रियाएं दी हैं”
10.
“सिनेमा मेरे लिए कोई art form नहीं है. ये मेरे लोगों की सेवा करने का एक जरिया मात्र
है. मैं कोई समाजशास्त्री नहीं हूं और इसलिए ऐसे भ्रम नहीं पालता कि मेरा सिनेमा
लोगों को बदल सकता है. कोई एक फिल्ममेकर लोगों को नहीं बदल सकता है. लोग बहुत
विशाल हैं और वे अपने आप को ख़ुद बदल रहे हैं. मैं चीजें नहीं बदल रहा हूं, जो भी बड़े बदलाव हो रहे हैं मैं सिर्फ उन्हें दस्तावेज कर
रहा हूं”
11.
“मेरे लिए सिनेमा और कुछ
नहीं सिर्फ एक अभिव्यक्ति है. ये मेरे लिए अपने लोगों के कष्टों और दुखों को लेकर
अपना गुस्सा जाहिर करने का माध्यम है. कल को सिनेमा के अलावा भी इंसान की बुद्धि
शायद कुछ ऐसा बना ले जो सिनेमा से भी ज्यादा मजबूती, बल और तात्कालिकता से लोगों की खुशियों, दुखों, आकांक्षाओं, सपनों, आदर्शों को अभिव्यक्त कर
सके. तब वो ही आदर्श माध्यम बन जाएगा”
12.
“ये मेरे दर्शकों को तय करना है कि
क्या मैं एक पोलिटिकल फिल्ममेकर हूं या नहीं? कि क्या मैं भारत का पहला और एकमात्र
पोलिटिकल फिल्ममेकर हूं? विस्तृत संदर्भ में कहूं तो मेरी सारी
फिल्में पोलिटिकल हैं, जैसे कि हर आर्ट होता है, हर आर्टिस्ट होता है. ये या तो इस या
उस वर्ग के बारे में होता है. एक फिल्ममेकर चाहे तो इसे पोलिटिकल नाम दे दे, और दूसरा उसे ऐसा नाम न दे लेकिन अंत
में दोनों फिल्में इसी मसकद को पूरा करती हैं.”
13.
“आर्ट में कुछ भी आधुनिक नहीं
होता, सबकुछ आधुनिक ही है. अगर कोई कुछ बहुत ‘आधुनिक’ कर देने का श्रेय लेता है तो वो
एक मूर्ख है और गलतफहमी में जी रहा है. आर्ट निरंतर रूप से अपने स्वरूप बदलता रहता
है और हर तरह के स्वरूप के साथ प्रयोग हो चुके हैं, उन्हें लागू किया जा चुका है और
खपाया जा चुका है, हम बस इन्हें फिर से खोज ले रहे हैं. और कुछ नहीं”
14.
“एक कवि सब कलाकारों का
आदिस्वरूप होता है. कविता सब कलाओं की कला है”
15.
“मेरी पहली फिल्म (अजांत्रिक 1958, टेक्नीकली दूसरी) को 18वीं सदी के स्पैनिश नॉवेल Gil Blas
de Santillane की तर्ज वाली पिकारेस्क (कहानियों की श्रेणी जिसमें निचले
तबके के ‘बदमाश’ हीरो/हीरोइन केंद्र में होते हैं)
फिल्म कहा गया. दूसरी (बारी ठेक पाले 1958) के बारे में कहा गया कि इसकी तो
अप्रोच डॉक्यूमेंट्री फिल्म वाली है. उससे अगली (मेघे ढाका तारा, 1960) को बोला मेलोड्रामा है. चौथी (कोमल
गांधार 1961) को लेकर कहा गया कि ये तो कुछ भी नहीं थी, फिल्म तो बिल्कुल भी नहीं. मेरे दिमाग
में ये है कि मैं अभी तलाश ही रहा हूं. तलाश रहा हूं कि किसी थीम के लिए सबसे ठीक
अभिव्यक्ति कौन सी मौजूद है, जिसे पा लूं. कभी शायद मैंने ऐसा कर
दिया है और कभी शायद दिशा छूट गई होगी’’
“फिल्म एक्टिंग पूरी तरह से कैमरा के प्लेसमेंट, लाइटिंग और इनसे भी जरूरी, एडिटिंग पर निर्भर होती है. हमारे अभिनेताओं या अभिनेत्रियों ने कभी भी इन
कलाओं में दक्षता पाने की मामूली सी इच्छा भी नहीं जताई है. और इसके बगैर फिल्म
एक्टिंग सही मायनों में संभव ही नहीं है. जब मैं हमारे महान अभिनेता और
अभिनेत्रियों को कई गज फैले फिल्मी परदे पर परिश्रम करते देखता हूं तो एक हाथी की
याद आती है जो बर्फ की टीलों में नाचने की कोशिश कर रहा है! यह माध्यम या तो सब
कुछ सीखने का है या सब कुछ छोड़ने का. अभी जो हम देखते हैं वो एक्टिंग नहीं है.
Super duper post nitin ji
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