Saturday, November 19, 2016

Achhe Dino Ke Sapne - Nitin Yaduvanshi | Roshni Ke Katre | Kavyankur [का...




HEY all
This is my first poetry video...watch and review..if you like dont forget to subscribe the channel for more updates...

Friday, November 4, 2016

Ritvik Ghatak- Pure Filmy Man- (1925-1976)




   गंदा, बदबूदार, शराबी डायरेक्टर कहा जाने वाला पदमश्री विजेता रित्विक घटक दुनिया के महान फिल्मकारों में से है जिन्होने पूरे जीवन में से आधा जीवन फिल्मो में लगा दिया और 9 फिल्मे बनाई | घटक जी को कभी भी दुनिया इतनी मीठी नही लगी जितनी उनके मन की चाह रही | सामाजिक गैर बराबरी, अन्याय , घूसखोरी, आडम्बरो से थका हुआ ये फ़िल्मकार रुग्ण सा जीवन जिया और एक सच्चा फ़िल्मकार कहलाया| सत्यजीत रे इनकी खूब तारीफ करते थे. कहा जाता है ये फिल्मो का दीवाना हर वक्त सोचता रहता था, नहाना, खाना, और नैतिक कहे जाने वाले सभी किर्याकलापो को जीवन से अलग कर दिया था इन्होने| बीडी और शराब में मशगूल रहने के कारण घर का सारा सामान तक बिक गया था ,पत्नी और तीन बच्चो का भरण पोषण दांव पर भी रहा. पत्नी ने हमेशा इनके दीवानेपन का साथ दिया | आज भी दुनिया भर के तमाम फिल्म स्कूलों में घटक जी को पढ़ा जाता है| ४ नवम्बर 1925 को जन्मा ये फ़िल्मकार 1976 तक  जिया !
उनसे जुडी 16 बाते जो फिल्म्स से जुडे लोगो को जाननी चाहिए -
 1 “ फिल्म देखने जाना भी एक तरह का संस्कार है.जब बत्तियां बुझ जाती है, परदे जिंदा हो जाते हैं. तो सब दर्शक एक हो जाते हैं|  ये एक समुदाय वाली भावना हो जाती है. हम इसकी तुलना चर्च, मस्जिद या मंदिर जाने से कर सकते हैं|  
2 . “मैं फिल्मों में आया तो पैसे कमाने के लिए नहीं. बल्कि कष्टों में जी रहे मेरे लोगों को लेकर मेरी पीड़ा और व्यथा को जाहिर करने की इच्छा के कारण. इस वजह से मैं सिनेमा में आया. मैं नारे लगाने या जैसे कि वे कहते हैं एंटरटेनमेंटमें यकीन नहीं रखता हूं. बल्कि इस ब्रम्हांड, इस दुनिया, अंतरराष्ट्रीय स्थितियों, मेरे देश और अंत में मेरे अपने लोगों के बारे में गहराई से सोचने में यकीन रखता हूं. मैं फिल्में उनके लिए बनाता हूं. हो सकता है मैं फेल हो जाऊं लेकिन इसका फैसला तो लोगों को करना है.
3 टैगोर ने एक बार कहा था, “आर्ट को ब्यूटीफुल होना चाहिए, लेकिन उससे भी पहले उसे ट्रूथफुल यानी सच्चा होना चाहिए.ये सच क्या है? कोई शाश्वत सच नहीं है. हर आर्टिस्ट को एक दर्दभरी निजी प्रक्रिया से गुजरने के बाद अपना ख़ुद का सच समझना होता है. और यही है जो उसे अभिव्यक्त करना है”

      4.     ‘’आर्ट में सबकुछ जायज है. महत्वपूर्ण प्रश्न यह है कि जो लोग ज़ोरदार ढंग से nudity और kissing का समर्थन करते हैं क्या वो कला के बारे में सोचते हुए ऐसा करते हैं, या फिर वे जल्दी रोकड़ा कमाने के लिए ऐसा करना चाहते हैं? ठीक उसी समय मैं चाहूंगा कि हमारी भारतीय संस्कृति के कट्‌टर रुढ़िवादी रखवाले, हमारी प्राचीन गुफाओं और मंदिरों में जाएं और ख़ुद देखें कैसे हमारे पूर्वजों ने इस विषय का सामना किया था. असल बात तो यह है कि हमारे मुनाफा-कमाने वाले समाज में दोनों ही पक्षों के लोग अपना-अपना स्वार्थ पूरा करना चाहते हैं. इनमें से कोई भी स्वार्थरहित आलोचक या कला का सच्चा प्रेमी नहीं है. इसीलिए मैं इस चूहा-दौड़ में शामिल ही नहीं होना चाहता. 
5.     फिल्मों में अभिनय असल में, डायरेक्टर और एक्टर्स के बीच गहरे तालमेल के बाद जन्मता है और खेद है कि वो भारत में गायब है.
6.     अच्छे सिनेमा को जिंदगी के अलग नहीं किया जा सकता. इसे लोगों की आकांक्षाओं और घबराहटों का प्रतिनिधित्व करना ही होता है. इसे समय से साथ कदम बढ़ाने होते हैं. इसकी जड़ें लोगों में होनी होती हैं. मेरे हिसाब से बंबई के सिनेमा की कोई जड़ें नहीं हैं.”    


7.     इस पर हमेशा बहस की जाती है कि एक आर्टिस्ट को क्या सिर्फ प्रॉब्लम सामने रखनी चाहिए या उसके समाधान की ओर भी इशारा करना चाहिए. मुझे लगता है कि ये चीजों की तरफ बहुत बचकाने ढंग से देखने का तरीका है. अगर आर्टिस्ट को समाधान सामने रखने की जरूरत महसूस होती है तो उसका स्वागत है. लेकिन अकसर वह समस्या बताता है और मामले को वहीं छोड़ देता है. ये दोनों ही ट्रीटमेंट समान रूप से महत्वपूर्ण हैं. हम किसी एक पर आशावादी और दूसरे पर निराशावादी का लेबल नहीं लगा सकते हैं. केंद्रीय बिंदु यह है कि जो भी फिल्म की विषय-वस्तु और रचनाकार के दिमाग में से सहज रूप से विकसित होता है वो पूरी तरह स्वीकार्य है. लेकिन जो भी उभरे वो स्वत: होना चाहिए. सवाल यह है कि क्या वो आर्टिस्ट जीवन और इंसानों को लेकर पक्षपाती है या नहीं? अगर वो है तो फिर ये प्रॉब्लम कभी नहीं होती’’ 

8.     ‘’इस दुनिया में अभी तक वर्ग-हीन कला जैसी
 कोई चीज नहीं है. कारण ये है कि कोई 
वर्ग-हीन समाज ही नहीं है. हर work of art 
यानी कलाकृति सापेक्षिक है और यह वह इंसान 
से जुड़ी है. अपने नाम के मूल्य मुताबिक हर आर्ट
 को इंसान की बेहतरी के लिए काम करना ही 
चाहिए. मैं किसी कठोर थ्योरी में यकीन नहीं करता हूं लेकिन ठीक उसी समय मैं इन तथाकथित महानफिल्ममेकर्स को लेकर हैरान हूं, जो मूल रूप से कुछ नहीं बस नौसिखिए हैं और मानवीय रिश्तों के आर्ट का शोर मचाते रहते हैं. अपनी सामाजिक जिम्मेदारी से बचने का ये बहुत चतुर तरीका है. असल में जो भी काम ये करते हैं वो सिर्फ उनकी अपनी सत्ता को फायदा पहुंचाने के लिए होता है. ये लोग इतने पक्षपाती हैं जितना कि कोई हो सकता है लेकिन अपक्षपाती होने का मास्क पहनते हैं. मैं ऐसे आदर्शों से घृणा करता हूं’’


9.   “ पूर्वी पाकिस्तान का एक बंगाली होते हुए मैंने आजादी के नाम पर अपने लोगों पर अकथ्य ज़ुल्म होते देखे हैं. ये आज़ादी बिलकुल फर्जी और शर्मनाक है. मैंने अपनी फिल्मों में इसे लेकर हिंसक प्रतिक्रियाएं दी हैं”
10.  सिनेमा मेरे लिए कोई art form नहीं है. ये मेरे लोगों की सेवा करने का एक जरिया मात्र है. मैं कोई समाजशास्त्री नहीं हूं और इसलिए ऐसे भ्रम नहीं पालता कि मेरा सिनेमा लोगों को बदल सकता है. कोई एक फिल्ममेकर लोगों को नहीं बदल सकता है. लोग बहुत विशाल हैं और वे अपने आप को ख़ुद बदल रहे हैं. मैं चीजें नहीं बदल रहा हूं, जो भी बड़े बदलाव हो रहे हैं मैं सिर्फ उन्हें दस्तावेज कर रहा हूं”
11.  मेरे लिए सिनेमा और कुछ नहीं सिर्फ एक अभिव्यक्ति है. ये मेरे लिए अपने लोगों के कष्टों और दुखों को लेकर अपना गुस्सा जाहिर करने का माध्यम है. कल को सिनेमा के अलावा भी इंसान की बुद्धि शायद कुछ ऐसा बना ले जो सिनेमा से भी ज्यादा मजबूती, बल और तात्कालिकता से लोगों की खुशियों, दुखों, आकांक्षाओं, सपनों, आदर्शों को अभिव्यक्त कर सके. तब वो ही आदर्श माध्यम बन जाएगा”

12.  ये मेरे दर्शकों को तय करना है कि क्या मैं एक पोलिटिकल फिल्ममेकर हूं या नहीं? कि क्या मैं भारत का पहला और एकमात्र पोलिटिकल फिल्ममेकर हूं? विस्तृत संदर्भ में कहूं तो मेरी सारी फिल्में पोलिटिकल हैं, जैसे कि हर आर्ट होता है, हर आर्टिस्ट होता है. ये या तो इस या उस वर्ग के बारे में होता है. एक फिल्ममेकर चाहे तो इसे पोलिटिकल नाम दे दे, और दूसरा उसे ऐसा नाम न दे लेकिन अंत में दोनों फिल्में इसी मसकद को पूरा करती हैं.
13.  आर्ट में कुछ भी आधुनिक नहीं होता, सबकुछ आधुनिक ही है. अगर कोई कुछ बहुत आधुनिककर देने का श्रेय लेता है तो वो एक मूर्ख है और गलतफहमी में जी रहा है. आर्ट निरंतर रूप से अपने स्वरूप बदलता रहता है और हर तरह के स्वरूप के साथ प्रयोग हो चुके हैं, उन्हें लागू किया जा चुका है और खपाया जा चुका है, हम बस इन्हें फिर से खोज ले रहे हैं. और कुछ नहीं”
14.   एक कवि सब कलाकारों का आदिस्वरूप होता है. कविता सब कलाओं की कला है”












15.  मेरी पहली फिल्म (अजांत्रिक 1958, टेक्नीकली दूसरी) को 18वीं सदी के स्पैनिश नॉवेल Gil Blas de Santillane की तर्ज वाली पिकारेस्क (कहानियों की श्रेणी जिसमें निचले तबके के बदमाशहीरो/हीरोइन केंद्र में होते हैं) फिल्म कहा गया. दूसरी (बारी ठेक पाले 1958) के बारे में कहा गया कि इसकी तो अप्रोच डॉक्यूमेंट्री फिल्म वाली है. उससे अगली (मेघे ढाका तारा, 1960) को बोला मेलोड्रामा है. चौथी (कोमल गांधार 1961) को लेकर कहा गया कि ये तो कुछ भी नहीं थी, फिल्म तो बिल्कुल भी नहीं. मेरे दिमाग में ये है कि मैं अभी तलाश ही रहा हूं. तलाश रहा हूं कि किसी थीम के लिए सबसे ठीक अभिव्यक्ति कौन सी मौजूद है, जिसे पा लूं. कभी शायद मैंने ऐसा कर दिया है और कभी शायद दिशा छूट गई होगी’’
फिल्म एक्टिंग पूरी तरह से कैमरा के प्लेसमेंट, लाइटिंग और इनसे भी जरूरी, एडिटिंग पर निर्भर होती है. हमारे अभिनेताओं या अभिनेत्रियों ने कभी भी इन कलाओं में दक्षता पाने की मामूली सी इच्छा भी नहीं जताई है. और इसके बगैर फिल्म एक्टिंग सही मायनों में संभव ही नहीं है. जब मैं हमारे महान अभिनेता और अभिनेत्रियों को कई गज फैले फिल्मी परदे पर परिश्रम करते देखता हूं तो एक हाथी की याद आती है जो बर्फ की टीलों में नाचने की कोशिश कर रहा है! यह माध्यम या तो सब कुछ सीखने का है या सब कुछ छोड़ने का. अभी जो हम देखते हैं वो एक्टिंग नहीं है. 



Wednesday, June 8, 2016

Udta Punjab/ Attempt to murder a film by Censor Board/ Anurag Kashyap

Same on you Censor Board...................Judge yourself then judge a film .

इंसानी जज्बातों की जरुरत अगर प्रेम है या सेक्स है या फिर प्रेम, सेक्स मानवीय जीवन में है तो साहित्य या काव्य या फिर फिल्म का ये हिस्सा होगा ही! इसमे बुराई ही क्या है! कुछ भी क्रिएटिव वर्क चाहे वो किसी भी रूप जैसे साहित्य, काव्य , सिनेमा, आर्ट के रूप में है तो उस पर बात हो, क्युकी सूचनाओ से मानव मस्तिस्क का विकास होता है ! जब कोई बच्चा जन्म लेता है तो चुकी उसके मस्तिस्क में कुछ नही होता, धीरे धीरे कानो के रास्ते विभिन्न तरह की आवाज, आंखो के रास्ते तरह तरह के रंग, इमेज आदि ब्रेन में स्टोर होती है, स्पर्श के माध्यम से बहुत से सेंसेशन वो महसूस करता है एंड ब्रेन में ये सब सूचनाये स्टोर होती जाती है! फिर धीरे धीरे शब्दों और भाषाओ की समझ और धीरे धीरे वो बच्चा विकसित होता है! ULTIMATELY ये मानव के अपने खुद के वजूद का विकास सूचनाओ से सम्बंधित है ! विज्ञान तो यही कहता है !


कोई भी विषय या मुद्दा जो किसी भी समाज में मोजूद है, चाहे वो प्रेम हो, रोमान्स हो, हत्याये हो, राजनीती, दंगा, तस्करी, शोषण, या नशा या कुछ भी हो! अगर वो हमारे समाज का हिस्सा है तो उस पर बोलना, लिखना, काव्य कहना या सिनेमा में उसको उतरना कलात्मकता होती है! कवियों की सिर्जनशीलता, लेखको की रिसर्च और मेहनत, फिल्म निर्देशक की क्रिएटिविटी और बहुत बड़ी पूंजी का इस्तेमाल होता है ! जयादातर मामलो में पूरी दुनिया में ही जो भी लोग क्रिएटिविटी से जुडे है वो सभी अपने अपने ढंग और लेवल से समाज को बेहतर बनाने की परिकल्पना से औत प्रोत होते है! पिछले कुछ समय से ये क्रिएटिव लोग राजनीतिक पागलपन का शिकार हो रहे है! 


कुछ समय पहले कई अंतर्राष्ट्रीय पुरुस्कार जीत चुकी फिल्म काफिरों की नमाज को भारत में सेंसर बोर्ड ने सर्टिफिकेट ही नही दिया जबकि उस फिल्म में ऐसा कुछ भी नही था समाज के लिए घातक हो ! फिल्म के निर्माताओ ने सेंसर के पागल पन से तंग आकर फिल्म को यू tube ही रीलीज़ कर दिया, लाखो लोग फिल्म ऑनलाइन देख चुके है और फिल्म को हर दर्शक वर्ग ने सराहा भी है ! जल्द रीलीज़ होने वाली फिल्म “शोरगुल”  को जहाँ सेंसर ने तो पास कर दिया है व्ही उत्तर प्रदेश में कुछ सियासी दल इसके प्रदर्शन का पुरजोर विरोध कर रहे है क्युकी ये फिल्म मुजफ्फनगर दंगो की प्रस्टभूमि पर आधारित है!

“उड़ता पंजाब” फ़िल्म को लेकर तो सेंसर बोर्ड के चीफ ने जहाँ अनुराग कश्यप की फिल्म में 89 कट्स लगाने को कहा है व्ही एक अजीब बयान और दे दिया है की इस फिल्म के निर्माण के लिए निर्माताओ ने “आप” पार्टी से पैसे खाए है ? ये महान आदमी है पहलाज निहलानी! मुझे ये समझ नही आता ये कोन लोग है जो अपनी जिन्दगी में एक फिल्म नही बना सकते मगर फिल्म पर कैंची चलाने के अधिकार पा लेते है ! सायद उनके लिए फ़िल्म क्रिएटिव कम राजनीतिक धमाका जयादा नजर आती है !
भारत के फिल्म मेकर अपना तन, मन, धन लगाकर फिल्म बनाते है, अपने देश की समस्याओ पर बात करने वाले फिल्म मेकर्स की भी कमी नही है, सैकड़ो –हजारो को रोजगार मिलता है फिल्मो से! सूचनाओ का प्रसार होता है आम लोगो तक और मनोरंजन जिसकी भारतीयों को सबसे जयादा जरुरत है क्यकी तेजी से पनपता प्रतियोगी समाज में मानसिक विकारो की आंधी आई हुई है ! 



श्याम बेनेगल, अमिताभ बच्चन, आमिर खान, महेश भट तथा और भी बहुत से फ़िल्म उद्योग के तमाम जानकर मानते है फिल्म उड़ता पंजाब में कोई ऐसी चीज नही दिखाई गई जिसका समाज पर बुरा असर पड़ता है! मगर सिर्फ सेंसर को ये लगता है! अंदाजा लगाइए आप दोस्तों सेंसर बोर्ड में बैठे ये राजनीतिक लोग फिल्म का abcd तक नही जानते और इनको सरकार ने अधिकार दे रखे है फिल्म के सबसे बडे ज्ञानी वाले !!!!!
89 कट्स का मतलब है फिल्म का लगभग 8-10 मिनट का फुटेज हटा देना, ये तो डायरेक्टर ही जानते है की वो हिस्सा फिल्म के लिए कितना महत्वपूर्ण है ! जानकारी के लिए बता दे की 10 घंटे लगातर काम करके 100 लोगो की मेहनत और लाखो का खर्च के बाद किसी फिल्म का 1-2 मिनट ओके fotage शूट होता है, कई मामलो में तो ये भी नही हो पाता यदि मोसम या तकनिकी कारण आ जाये ! महीनो और कभी कभी तो सालो की मेहनत और करोडो की पूंजी लगाकर एक फिल्म का निर्माण होता है! और अगर फिर इस तरह का कैंची फिल्म पर चलती है तो आप सोच ले क्या गुजरती होगी उस फिल्म से जुडे कलाकार और बाकि सभी लोगो पर, जब फिल्म में राजनीती घुस जाये ! 
खैर जैसा की न्यू फिल्म मेकर्स के बीच और दर्शको के बीच अनुराग कश्यप को जमीनी सिनेमा के तौर पर माना जाता है उन्होने कोर्ट में सेंसर बोर्ड के खिलाफ जंग सुरु कर दी है, सिनेमा और क्रिएटिविटी के बेहतर भविष्वय के लिए उनकी जीत जरूरी है !
Same on you censor board/ This is the murder of a film/ who the hell you are to judge the creativity of a person. 
finally best wishes to ''Udta punjab'' UNIT and Anurag Kashyap.

Saturday, May 7, 2016

A LETTER TO SOCIAL, MORAL & RESPECTED SOCIETY



A teacher displays a mirror to the society and teaches the 

students about the difference between right and wrong, on 

whom the whole society has a deep belief. We gladly send 

our children (who are just like a raw sculpture or mould of 

clay) to school or college, only because we have complete 

trust on the teachers and the school operators.

         
We believe that in the school the teacher will impart 

proper guidance to the children, educate them about right-

wrong and give them a direction to their life. And, if the 

teacher imparts education about the bad things instead of 

the good ones then ? 
If the teacher exploits the students, 
just to fulfill his lusty desires, then what? A similar incident took place at a school in Muzaffarnagar when the principal tried to molest a Class 9th student, pressurizing her that if she blurts it out or complains to anybody, she will fail in the exam and her future will be destroyed.

In the first place, I salute the courage of the girl student, who raised her voice against the heinous act without any fear; generally, Indian women do not protest against such acts. The shameful act of the Principal has on one hand brought disrepute to the education community and on the other hand it serves as a wakeup call for those teachers who have lusty ambitions rising in their mind for students.


              What will happen now? The teacher will be punished, case will be filed against him, the news will report about the case for some time and gradually people will forget about the issue completely, as the public has a very short memory. You can’t even imagine how tormented the concerned child will feel in these years that she has to carry the burden of an act in which she is not at fault. Her state of mind, thinking ability, and emotions will be affected in a great way. she will develop her physical, mental, and societal outlook with a different approach now.  After the incident, she would find the teacher as a defaulter throughout her life. For we readers, it is another story, but for the girl child as she was stepping into the threshold of teenage, she got to know the real picture of a teacher, i.e. a lusty and disgusting person.
Maybe any incident of the similar nature in her future might not be as dangerous and venomous. and in this way the ancient tradition of teacher-disciple will be ruined.
the jerky question on this issue is why is it so?
why a teacher feels in this way for a student?
why does a Professor indulge himself in such crimes with the student?
why does a Senior Police Officer misbehave with his female colleague?
why does a judge or a lawyer harbour such feelings for his female junior colleagues and even expresses them?
why do the big officials or their children are found guilty of raping women?
why does the boss of a company molest a female employee or have a wrong intention towards her?
The examples of incidents stated above are occurring in every part of our country; the media channels have assisted in exposing such criminal acts in a concise manner to the public so that we are careful when are moving around the city.

       These incidents occur daily in some nook and corner of the country, wherein 60 to 70% cases involving females are not reported or protested because women believe that by doing so they will be humiliated and their lives will be complicated. The absence of protest from the women has empowered the people who harbour such a degraded mentality that they commit such crimes repeatedly. even if some women find the courage to raise their voice against such acts, then the male chauvinistic society finds faults with such women.  The whole country is flooded with incidents of rape and molestation, the culprit twists the law in his favour by  misuse of political or financial power and escapes from any sort of punishment. Every citizen is aware about this dark truth, but we keep mum about the issue and avoid ourselves from getting involved in this whirlpool. but, why?
    The main reason is that we have become so materialistic and running blindly after money that we have left our humanistic values far behind. In this race of modernism, we are disillusioned with the thought of turning modern that the feelings of love, sympathy, affection and spirit has no meaning in our lives now.
121 crores of population is being celebrated by the country of India. but is the country full of human beings or something else? we are proud of giving birth to a new child every day and  we feel proud that our total population is 121 crores? Have you ever thought how will feed such a huge population? however, i will not discuss about the issue of the increasing population. I just want each person out of these 121 crore people to answer a pertinent question. Give the answer to yourself and not me. once you will answer yourself you will realize whether you are a human being or a monster that is surviving on this Earth. the question is , “Is a woman an object only meant for indulgence?” I don’t know from ancient times we have tortured a woman in different ways. It is not known who is the ‘wise’ person who has taught us through the Ages that women is a mere object. Remember to give the answer to your conscience. It doesn’t matter whether a woman wears Jeans or carries a mobile phone. The man’ mind is disillusioned and venomous, if men themselves do not come out of the whirlpool of lust and sex then it is hard to imagine a truly developed India.


If the government, law & order Parliament, millions of NGO’s are not able to stop the innumerable incidents then i think we require a new approach to resolve this issue. We need to go deep into the roots of the problem. Don’t we require an intellectual revolution on a national level? Intelligent scholars and strategists should find a solution to the problem of cleaning the human mentality that has disillusioned the modern youth. Otherwise, the same old principle will continue that due to a single dirty fish the whole ocean will be polluted. 

                                                                   IN HINDI 

शिक्षक जो समाज को एक आइना दिखाता है, विधार्थियों को सही-गलत की सीख देता है, जिस पर हमारा पूरा समाज विश्वास करता है | हम अपने बच्चो ( जो कि एक अनघड मूर्ति या कच्चे घड़े ) को विधाल्य, स्कूल या कॉलेज सिर्फ सिर्फ इसलिए ही ख़ुशी से भेज देते है क्योकि हम हमारे अध्यापको विधाल्य संचालको पर भरोसा करते है |
हम भरोसा करते है कि विधाल्य में शिक्षक बच्चो को सही और उचित शिक्षा  देंगे, सही-गलत कीसीख देंगे, जीने के लिए एक नजरिया देंगे | और अगर शिक्षक संस्कारो कि जगह कुसंस्कारों की शिक्षा दे तब ? और अगर शिक्षक ही अपनी वासना कि पूर्ति के लिए विधार्थियों का इस्तेमाल करे तब ? यही हुआ मुज्जफनगर के एक स्कूल में जहां प्रधानाचार्य ने 9th में पढने वाली एक छात्रा के साथ अश्लील हरकते की साथ ही उसे यह कहकर दबाना भी चाहा कि अगर वह इस विषय में किसे से कुछ भी कहेगी तो उसे फेल कर दिया जायेगा, और उसका भविष्य बरबाद कर दिया जायेगा |
      सबसे पहले तो मै उस बच्ची के होंसले को सलाम करता हूँ, कि उसने निडर होकर आवाज उठाई, वर्ना भारतीय महिलाये आवाज ही कहा उठाती हैं |  एक प्रधानाचार्य कि इस घिनोनी हरकत से जहां पूरा शिक्षक समाज खुद को कलंकित महसूस करता है, तो वही उन शिक्षको के भेष में छिपे वासना के कीड़ो को एक सीख भी जाती है कि होश में जाओ |
   अभी क्या होगा उस शिक्षक को सजा मिलेगी, केस चलेंगे, कुछ दिन खबरे बनेंगी और छपेंगी और धीरे-धीरे हमेशा कि तरह सब शांत हो जायेगा | आप अंदाजा भी नही लगा सकते वह बच्ची कितने वर्षो तक इस दंश को मस्तिस्क में पालकर बड़ी होगी | उसकी सोच, समंझ, मानसिक विकास किस तरह प्रभावित होगा |उस बच्ची कि आगे कि सभी तरह कि व्रद्धिया (मानसिक, शारीरिक, तथा सामाजिक) एक नयी दिशा में विकसित होंगी | इस घटना के बाद उसकी नजरो में उम्रभर के लिए एक शिक्षक गुनहगार बन गया | हमारे लिए यह मात्र एक घटना होगी मगर उस बच्ची के लिए जिसने अपने यौवनकाल में पूर्वरूप से कदम भी नही रखा है, शिक्षक सिर्फ एक वहशी अश्लील समझा जायेगा |
शायद उसकी आगे कि जिन्दगी में कोई भी विषम परिस्थिति इतनी खतरनाक नही होगी जितना कि शिक्षक !और इस तरह गुरु शिष्य परम्परा का भी यहाँ अंत हो जायेगा |
अब झकझोरने वाला प्रश्न ये है कि क्यू ?
क्यू एक शिक्षक अपनी एक छात्रा के साथ इस तरह की भावनाये रखता है?
क्यू एक प्रोफेसर अपनी सौध छात्रा को शोषित करता हुआ पाया जाता है?
क्यू एक पुलिस प्रसाशन का बड़ा अधिकारी अपने जूनियर महिला साथी का शोषण करता है?
क्यू कोई जज/वकील  अपने जूनियर महिला साथियों के साथ इस तरह कि भावनाए रखता है,कृत्य भी करता है?
क्यू बड़े पदों पर बैठे माननीयो के बच्चे या खुद माननीय ही बलात्कार जैसे घटनाओ में संलग्न पाए जाते है?
क्यू कम्पनियों के बॉस अपनी महिला साथियों के लिए योन आकर्षण से भरा या दुव्हावार में लिप्त पाये जाते है?
उपरोक्त ! सभी तरह के मामले देश में कही कही होते है और मै धन्यवाद देता हू मिडिया को, कि इन सभी घटनाओ को वे बड़े अच्छे ढंग से आम आम लोगो तक पहुचाते है ताकि हम सब समंझ ले कि कहाँ से बचकर चलना है |
ये सभी घटनाये रोज रोज देश के किसी किसी कोने में घट रही है, जिनमे 60-70% मामलो में महिलाये इन घटनाओ के खिलाफ आवाज ही नही उठाती क्योकि शायद वो मानती है कि ऐसा करने से खुद उन्ही की इज्जत को खतरा है, या उनका जीवन उलझनों में पड़ सकता हैया जो भी और कारण हो | महिलाओ कि इन्ही कदम बढ़ाने के कारण उन तुच्छ मानसिकता वाले लोगो को होंसला मिल जाता है और वो हर बार यही दोहराते है |और अगर कुछ महिलाये आवाज उठाती भी है, तो ये पुरुष समाज उल्टा उन्ही पर ऊँगली उठाता है | और पूरा देश जानता है कि कितने ही रैप के मामलो में अभियुक्त बरी हुए है | अभियुक्त किसी किसी तरह जुगाड़ लगाकर प्रसाशन और न्याय को अपनी पावर या किसी भी link के कारण अपने पक्ष में कर ही लेता है | इस सत्य को समाज का हर तबगा जानता है मगर हम सब खामोश है | आखिर क्यों ?
क्योकि भौतिक विकास कि इस अंधी दोड में मानवीय मूल्य कही पीछे छूट गये है | आधुनिकता कि इस दोड में, modern बनने कि इस चकाचोंध में प्रेम, सोहार्द, आत्मा कही बिखर गयी है|
     121 करोड़ होकर हम जश्न मनाते है कि लो जी हम हो गये 121 करोड़” |आदमी या कुछ और ? बच्चे पे बच्चा पैदा करने वाले हम भारतीय 121 करोड़ होने पर गर्व महसूस करते है ? कैसे होगा इतनी बड़ी और ज्यादा फसलो का भरण पोषण ? खैर मै जनसंख्या पर बात नही कर रहा अभी ? मै 121 करोड़ भारतीयों से, एक सच्चा और पवित्र प्रशन पूछता हू | जवाब मुझे मत देना, अपने आप को ही देना और जवाब खुद को देकर सोचना कि क्या तुम वास्तव में एक मनुष्य हो या कोई हैवान प्रजाती जो इस जमीन पर स्वांग करने आई है | प्रश्न हैक्या औरत सिर्फ एक भोग कि वस्तु है”? ना जाने कितने तरीको से हम सदियों से नारी का शोषण करते आये है | पता नही वो कोन मूर्ख था जिसने हमारी पीढियों को ये सिखाया किऔरत मात्र एक चीज है”| जवाब खुद को देना | और इस बात से जरा भी फर्क नही पड़ता की महिलाये जीन्स पहेनती है, या मोबाइल रखती है | गन्दगी पुरुष कि सोच में है, अगर पुरुष अपने मन के इस वासना रूपी दलदल से भर निकल सके तब हम सच्चे,विकासशील/विकसित  भारत कि कल्पना कर सकते है|
अगर देश कि सरकारे, न्यायपालिका, प्रसाशन हजारो- लाखो गैर सरकारी संघटन सब मिलकर भी इस तरह की घटनाओ पर रोक नही लगा पा रहे है तो शायद हमको नये नजरिये से सोचना जरूरी है | हमे वास्तविक जड़ो तक जाना ही होगा | क्या समूचे राष्ट्र को आज एक नयी नीति या विचार क्रांति की जरूरत नही है? देश के नीतिकारो को,देश के बुद्धिजीवी विचारको को अब तो मनुष्य कि मानसिकता पर काम करना ही चाहिए | वर्ना ! हर बार की तरह यही होगा कि बीमार कोई और है, इलाज किसी और का होगा, और सही कोई और ही हो जायेगा |